भगवद गीता का पंद्रहवा अध्याय पुरुषोत्तमयोग है। संस्कृत में, पुरूष का मतलब सर्वव्यापी भगवान है, और पुरुषोत्तम का मतलब है ईश्वर का कालातीत और पारस्परिक पहलू। कृष्णा बताते हैं कि ईश्वर के इस महान ज्ञान का उद्देश्य भौतिक संसार के बंधन से खुद को अलग करना है और कृष्ण को सर्वोच्च दिव्य व्यक्तित्व के रूप में समझना है, जो विश्व के शाश्वत नियंत्रक और निर्वाहक हैं। जो इस परम सत्य को समझता है वह प्रभु को समर्पण करता है और उनकी भक्ति सेवा में संलग्न हो जाता है।
श्लोक:’15.1′,
‘श्रीभगवानुवाच | ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् | छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ||१५-१||’,
‘।।15.1।। श्री भगवान् ने कहा — (ज्ञानी पुरुष इस संसार वृक्ष को) ऊर्ध्वमूल और अध:शाखा वाला अश्वत्थ और अव्यय कहते हैं; जिसके पर्ण छन्द अर्थात् वेद हैं, ऐसे (संसार वृक्ष) को जो जानता है, वह वेदवित् है।।’,
श्लोक:’15.2′,
‘अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः | अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके ||१५-२||’,
‘।।15.2।। उस वृक्ष की शाखाएं गुणों से प्रवृद्ध हुईं नीचे और ऊपर फैली हुईं हैं; (पंच) विषय इसके अंकुर हैं; मनुष्य लोक में कर्मों का अनुसरण करने वाली इसकी अन्य जड़ें नीचे फैली हुईं हैं।।’,
श्लोक:’15.3′,
‘न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा | अश्वत्थमेनं सुविरूढमूलं असङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा ||१५-३||’,
‘।।15.3।। इस (संसार वृक्ष) का स्वरूप जैसा कहा गया है वैसा यहाँ उपलब्ध नहीं होता है, क्योंकि इसका न आदि है और न अंत और न प्रतिष्ठा ही है। इस अति दृढ़ मूल वाले अश्वत्थ वृक्ष को दृढ़ असङ्ग शस्त्र से काटकर …৷৷৷৷।।’,
श्लोक:’15.4′,
‘ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः | तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये | यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी ||१५-४||’,
‘।।15.4।। (तदुपरान्त) उस पद का अन्वेषण करना चाहिए जिसको प्राप्त हुए पुरुष पुन: संसार में नहीं लौटते हैं। “मैं उस आदि पुरुष की शरण हूँ, जिससे यह पुरातन प्रवृत्ति प्रसृत हुई है”।।’,
श्लोक:’15.5′,
‘निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः | द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्- गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत् ||१५-५||’,
‘।।15.5।। जिनका मान और मोह निवृत्त हो गया है, जिन्होंने संगदोष को जीत लिया है, जो अध्यात्म में स्थित हैं जिनकी कामनाएं निवृत्त हो चुकी हैं और जो सुख-दु:ख नामक द्वन्द्वों से विमुक्त हो गये हैं, ऐसे सम्मोह रहित ज्ञानीजन उस अव्यय पद को प्राप्त होते हैं।।’,
श्लोक:’15.6′,
‘न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः | यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ||१५-६||’,
‘।।15.6।। उसे न सूर्य प्रकाशित कर सकता है और न चन्द्रमा और न अग्नि। जिसे प्राप्त कर मनुष्य पुन: (संसार को) नहीं लौटते हैं, वह मेरा परम धाम है।।’,
श्लोक:’15.7′,
‘ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः | मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ||१५-७||’,
‘।।15.7।। इस जीव लोक में मेरा ही एक सनातन अंश जीव बना है। वह प्रकृति में स्थित हुआ (देहत्याग के समय) पाँचो इन्द्रियों तथा मन को अपनी ओर खींच लेता है अर्थात् उन्हें एकत्रित कर लेता है।।’,
श्लोक:’15.8′,
‘शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः | गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात् ||१५-८||’,
‘।।15.8।। जब (देहादि का) ईश्वर (जीव) (एक शरीर से) उत्क्रमण करता है, तब इन (इन्द्रियों और मन) को ग्रहण कर अन्य शरीर में इस प्रकार ले जाता है, जैसे गन्ध के आश्रय (फूलादि) से गन्ध को वायु ले जाता है।।’,
श्लोक:’15.9′,
‘श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च | अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते ||१५-९||’,
‘।।15.9।। (यह जीव) श्रोत्र, चक्षु, स्पर्शेन्द्रिय, रसना और घ्राण (नाक) इन इन्द्रियों तथा मन को आश्रय करके अर्थात् इनके द्वारा विषयों का सेवन करता है।।’,
श्लोक:’15.10′,
‘उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम् | विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः ||१५-१०||’,
‘।।15.10।। शरीर को त्यागते हुये, उसमें स्थित हुये अथवा (विषयों को) भोगते हुये, गुणों से समन्वित आत्मा को विमूढ़ लोग नहीं देखते हैं; (परन्तु) ज्ञानचक्षु वाले पुरुष उसे देखते हैं।।’,
श्लोक:’15.11′,
‘यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम् | यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः ||१५-११||’,
‘।।15.11।। योगीजन प्रयत्न करते हुये ही अपने हृदय में स्थित आत्मा को देखते हैं, जब कि अशुद्ध अन्त:करण वाले (अकृतात्मान:) और अविवेकी (अचेतस:) लोग यत्न करते हुये भी इसे नहीं देखते हैं।।’,
श्लोक:’15.12′,
‘यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम् | यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम् ||१५-१२||’,
‘।।15.12।। जो तेज सूर्य में स्थित होकर सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करता है तथा जो तेज चन्द्रमा में है और अग्नि में है, उस तेज को तुम मेरा ही जानो।।’,
श्लोक:’15.13′,
‘गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा | पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः ||१५-१३||’,
‘।।15.13।। मैं ही पृथ्वी में प्रवेश करके अपने ओज से भूतमात्र को धारण करता हूँ और रसस्वरूप चन्द्रमा बनकर समस्त औषधियों का अर्थात् वनस्पतियों का पोषण करता हूँ।।’,
श्लोक:’15.14′,
‘अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः | प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम् ||१५-१४||’,
‘।।15.14।। मैं ही समस्त प्राणियों के देह में स्थित वैश्वानर अग्निरूप होकर प्राण और अपान से युक्त चार प्रकार के अन्न को पचाता हूँ।।’,
श्लोक:’15.15′,
‘सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनञ्च | वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ||१५-१५||’,
‘।।15.15।। मैं ही समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ। मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन (उनका अभाव) होता है। समस्त वेदों के द्वारा मैं ही वेद्य (जानने योग्य) वस्तु हूँ तथा वेदान्त का और वेदों का ज्ञाता भी मैं ही हूँ।।’,
श्लोक:’15.16′,
‘द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च | क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ||१५-१६||’,
‘।।15.16।। इस लोक में क्षर (नश्वर) और अक्षर (अनश्वर) ये दो पुरुष हैं, समस्त भूत क्षर हैं और ‘कूटस्थ’ अक्षर कहलाता है।।’,
श्लोक:’15.17′,
‘उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युधाहृतः | यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ||१५-१७||’,
‘।।15.17।। परन्तु उत्तम पुरुष अन्य ही है, जो परमात्मा कहलाता है और जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण करने वाला अव्यय ईश्वर है।।’,
श्लोक:’15.18′,
‘यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः | अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ||१५-१८||’,
‘।।15.18।। क्योंकि मैं क्षर से अतीत हूँ और अक्षर से भी उत्तम हूँ, इसलिये लोक में और वेद में भी पुरुषोत्तम के नाम से प्रसिद्ध हूँ।।’,
श्लोक:’15.19′,
‘यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम् | स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत ||१५-१९||’,
‘।।15.19।। हे भारत ! इस प्रकार, जो, संमोहरहित, पुरुष मुझ पुरुषोत्तम को जानता है, वह सर्वज्ञ होकर सम्पूर्ण भाव से अर्थात् पूर्ण हृदय से मेरी भक्ति करता है।।’,
श्लोक:’15.20′,
‘इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ | एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत ||१५-२०||’,
‘।।15.20।। हे निष्पाप भारत ! इस प्रकार यह गुह्यतम शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया, इसको जानकर मनुष्य बुद्धिमान और कृतकृत्य हो जाता है।।’,
श्लोक:’15.21′,
‘ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुन संवादे पुरुषोत्तमयोगो नाम पञ्चदशोऽध्यायः ||१५||’,
‘Swami Tejomayananda did not comment on this sloka’,