भगवद् गीता में समत्व भाव

भगवद् गीता में समत्व भाव का उल्लेख अनेक जगहों पर मिलता है, यहाँ कुछ प्रमुख उदाहरण दिए गए हैं:

1. कर्मयोग में समत्व भाव:

  • अध्याय 2, श्लोक 47-48: “कर्मफल में आसक्ति न रखकर कर्म करो, समत्व भाव को अपनाकर सफलता प्राप्त करो।”
  • अध्याय 6, श्लोक 31-32: “सुख और दुख, लाभ और हानि, जीत और हार में सम रहो, तब तुम योगी कहलाओगे।”
  • अध्याय 12, श्लोक 13-14: “सभी प्राणियों में समान भाव रखो, मित्र-शत्रु, मान-अपमान, सुख-दुख में सम रहो।”

2. ज्ञानयोग में समत्व भाव:

  • अध्याय 4, श्लोक 37: “ज्ञान प्राप्त करो, सभी वस्तुओं को समान समझो, छोटे-बड़े, सुंदर-कुरूप, प्रिय-अप्रिय में भेदभाव मत रखो।”
  • अध्याय 5, श्लोक 14: “ज्ञानयोग से कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाओ, समत्व भाव प्राप्त करो।”
  • अध्याय 18, श्लोक 54: “ज्ञान से सभी कर्मों को समान समझो, तब तुम कर्मयोगी कहलाओगे।”

3. भक्ति योग में समत्व भाव:

  • अध्याय 9, श्लोक 29: “मेरे भक्त सभी प्राणियों में समान भाव रखते हैं, वे मुझसे प्रेम करते हैं।”
  • अध्याय 10, श्लोक 34: “मेरे भक्त सभी प्राणियों में मेरा ही दर्शन करते हैं, वे समत्व भाव प्राप्त करते हैं।”
  • अध्याय 12, श्लोक 19: “जो मुझमें प्रेम रखते हैं, वे सभी प्राणियों में मेरा ही रूप देखते हैं, वे समत्व भाव प्राप्त करते हैं।”

निष्कर्ष:

भगवद् गीता में समत्व भाव को जीवन जीने का आदर्श तरीका बताया गया है। कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्ति योग सभी में समत्व भाव का महत्व बताया गया है। समत्व भाव प्राप्त करने से व्यक्ति सुख-दुख, लाभ-हानि, जीत-हार आदि में विचलित नहीं होता और जीवन में शांति और संतोष प्राप्त करता है।

Leave a Reply