Unveiling the Divine and Demonic Natures A Guide to Self-Mastery in Bhagavad Gita Chapter 16 (Daivasura Sampada Vibhaga Yoga)

भगवद गीता अध्याय 16: दैव आसुर संपदा विभाग योग

भगवद गीता का सोलहवा अध्याय दैवासुरसम्पद्विभागयोग है। इस अध्याय में, कृष्ण स्पष्ट रूप से मानवों की दो प्रकार की प्रकृतियों का वर्णन करते हैं- दैवीय और दानवीय। दानवीय स्वभाव वाले लोग स्वयं को लालसा और अज्ञान के तरीकों से जोड़ते हैं, शास्त्रों के नियमों का पालन नहीं करते हैं और भौतिक विचारों को ग्रहण करते हैं। ये लोग निचली जातियों में जन्म लेते हैं और भौतिक बंधनों में और भी बंध जाते हैं। परन्तु जो लोग दैवीय स्वभाव वाले होते हैं, वे शास्त्रों के निर्देशों का पालन करते हैं, अच्छे काम करते हैं और आध्यात्मिक प्रथाओं के माध्यम से मन को शुद्ध करते हैं। इससे दैवीय गुणों में वृद्धि होती है और वे अंततः आध्यात्मिक प्राप्ति प्राप्त करते हैं।

श्लोक:’16.1′,

‘श्रीभगवानुवाच | अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः | दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् ||१६-१||’,

‘।।16.1।। श्री भगवान् ने कहा — अभय, अन्त:करण की शुद्धि, ज्ञानयोग में दृढ़ स्थिति, दान, दम, यज्ञ, स्वाध्याय, तप और आर्जव।।’,

श्लोक:’16.2′,

‘अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम् | दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम् ||१६-२||’,

‘।।16.2।। अहिंसा, सत्य, क्रोध का अभाव, त्याग, शान्ति, अपैशुनम् (किसी की निन्दा न करना), भूतमात्र के प्रति दया, अलोलुपता , मार्दव (कोमलता), लज्जा, अचंचलता।।’,

श्लोक:’16.3′,

‘तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता | भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत ||१६-३||’,

‘।।16.3।। हे भारत ! तेज, क्षमा, धैर्य, शौच (शुद्धि), अद्रोह और अतिमान (गर्व) का अभाव ये सब दैवी संपदा को प्राप्त पुरुष के लक्षण हैं।।’,

श्लोक:’16.4′,

‘दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च | अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम् ||१६-४||’,

‘।।16.4।। हे पार्थ ! दम्भ, दर्प, अभिमान, क्रोध, कठोर वाणी (पारुष्य) और अज्ञान यह सब आसुरी सम्पदा है।।’,

श्लोक:’16.5′,

‘दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता | मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव ||१६-५||’,

‘।।16.5।। हे पाण्डव ! दैवी सम्पदा मोक्ष के लिए और आसुरी सम्पदा बन्धन के लिए मानी गयी है, तुम शोक मत करो, क्योंकि तुम दैवी सम्पदा को प्राप्त हुए हो।।’,

श्लोक:’16.6′,

‘द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च | दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे शृणु ||१६-६||’,

‘।।16.6।। हे पार्थ ! इस लोक में दो प्रकार की भूतिसृष्टि है, दैवी और आसुरी। उनमें देवों का स्वभाव (दैवी सम्पदा) विस्तारपूर्वक कहा गया है; अब असुरों के स्वभाव को विस्तरश: मुझसे सुनो।।’,

श्लोक:’16.7′,

‘प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः | न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते ||१६-७||’,

‘।।16.7।। आसुरी स्वभाव के लोग न प्रवृत्ति को; जानते हैं और न निवृत्ति को उनमें न शुद्धि होती है, न सदाचार और न सत्य ही होता है।।’,

श्लोक:’16.8′,

‘असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम् | अपरस्परसम्भूतं किमन्यत्कामहैतुकम् ||१६-८||’,

‘।।16.8।। वे कहते हैं कि यह जगत् आश्रयरहित, असत्य और ईश्वर रहित है, यह (स्त्रीपुरुष के) परस्पर कामुक संबंध से ही उत्पन्न हुआ है, और (इसका कारण) क्या हो सकता है?’,

श्लोक:’16.9′,

‘एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः | प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः ||१६-९||’,

‘।।16.9।। इस दृष्टि का अवलम्बन करके नष्टस्वभाव के अल्प बुद्धि वाले, घोर कर्म करने वाले लोग जगत् के शत्रु (अहित चाहने वाले) के रूप में उसका नाश करने के लिए उत्पन्न होते हैं।।’,

श्लोक:’16.10′,

‘काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः | मोहाद्गृहीत्वासद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः ||१६-१०||’,

‘।।16.10।। दम्भ, मान और मद से युक्त कभी न पूर्ण होने वाली कामनाओं का आश्रय लिये, मोहवश मिथ्या धारणाओं को ग्रहण करके ये अशुद्ध संकल्पों के लोग जगत् में कार्य करते हैं।।’,

श्लोक:’16.11′,

‘चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः | कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः ||१६-११||’,

‘।।16.11।। मरणपर्यन्त रहने वाली अपरिमित चिन्ताओं से ग्रस्त और विषयोपभोग को ही परम लक्ष्य मानने वाले ये आसुरी लोग इस निश्चित मत के होते हैं कि “इतना ही (सत्य, आनन्द) है”।।’,

श्लोक:’16.12′,

‘आशापाशशतैर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः | ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञ्चयान् ||१६-१२||’,

‘।।16.12।। सैकड़ों आशापाशों से बन्धे हुये, काम और क्रोध के वश में ये लोग विषयभोगों की पूर्ति के लिये अन्यायपूर्वक धन का संग्रह करने के लिये चेष्टा करते हैं।।’,

श्लोक:’16.13′,

‘इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम् | इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम् ||१६-१३||’,

‘।।16.13।। मैंने आज यह पाया है और इस मनोरथ को भी प्राप्त करूंगा, मेरे पास यह इतना धन है और इससे भी अधिक धन भविष्य में होगा।।’,

श्लोक:’16.14′,

‘असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि | ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी ||१६-१४||’,

‘।।16.14।। “यह शत्रु मेरे द्वारा मारा गया है और दूसरे शत्रुओं को भी मैं मारूंगा”, “मैं ईश्वर हूँ और भोगी हूँ”, “मैं सिद्ध पुरुष हूँ”, “मैं बलवान और सुखी हूँ”,।।’,

श्लोक:’16.15′,

‘आढ्योऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया | यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः ||१६-१५||’,

‘।।16.15।। “मैं धनवान् और श्रेष्ठकुल में जन्मा हूँ। मेरे समान दूसरा कौन है?”,’मैं यज्ञ करूंगा’, ‘मैं दान दूँगा’, ‘मैं मौज करूँगा’ – इस प्रकार के अज्ञान से वे मोहित होते हैं।।’,

श्लोक:’16.16′,

‘अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः | प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ ||१६-१६||’,

‘।।16.16।। अनेक प्रकार से भ्रमित चित्त वाले, मोह जाल में फँसे तथा विषयभोगों में आसक्त ये लोग घोर, अपवित्र नरक में गिरते हैं।।’,

श्लोक:’16.17′,

‘आत्मसम्भाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः | यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम् ||१६-१७||’,

‘।।16.17।। अपने आप को ही श्रेष्ठ मानने वाले, स्तब्ध (गर्वयुक्त), धन और मान के मद से युक्त लोग शास्त्रविधि से रहित केवल नाममात्र के यज्ञों द्वारा दम्भपूर्वक यजन करते हैं।।’,

श्लोक:’16.18′,

‘अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः | मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः ||१६-१८||’,

‘।।16.18।। अहंकार, बल, दर्प, काम और क्रोध के वशीभूत हुए परनिन्दा करने वाले ये लोग अपने और दूसरों के शरीर में स्थित मुझ (परमात्मा) से द्वेष करने वाले होते हैं।।’,

श्लोक:’16.19′,

‘तानहं द्विषतः क्रुरान्संसारेषु नराधमान् | क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु ||१६-१९||’,

‘।।16.19।। ऐसे उन द्वेष करने वाले,  क्रूरकर्मी और नराधमों को मैं संसार में बारम्बार (अजस्रम्) आसुरी योनियों में ही गिराता हूँ अर्थात् उत्पन्न करता हूँ।।’,

श्लोक:’16.20′,

‘आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि | मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम् ||१६-२०||’,

‘।।16.20।। हे कौन्तेय ! वे मूढ़ पुरुष जन्मजन्मान्तर में आसुरी योनि को प्राप्त होते हैं और ( इस प्रकार) मुझे प्राप्त न होकर अधम गति को प्राप्त होते है।।’,

श्लोक:’16.21′,

‘त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः | कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ||१६-२१||’,

‘।।16.21।। काम, क्रोध और लोभ ये आत्मनाश के त्रिविध द्वार हैं, इसलिए इन तीनों को त्याग देना चाहिए।।’,

श्लोक:’16.22′,

‘एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः | आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम् ||१६-२२||’,

‘।।16.22।। हे कौन्तेय ! नरक के इन तीनों द्वारों से विमुक्त पुरुष अपने कल्याण के साधन का आचरण करता है और इस प्रकार परा गति को प्राप्त होता है।।’,

श्लोक:’16.23′,

‘यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः | न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ||१६-२३||’,

‘।।16.23।। जो पुरुष शास्त्रविधि को त्यागकर अपनी कामना से प्रेरित होकर ही कार्य करता है, वह न पूर्णत्व की सिद्धि प्राप्त करता है, न सुख और न परा गति।।’,

श्लोक:’16.24′,

‘तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ | ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि ||१६-२४||’,

‘।।16.24।। इसलिए तुम्हारे लिए कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था (निर्णय) में शास्त्र ही प्रमाण है शास्त्रोक्त विधान को जानकर तुम्हें अपने कर्म करने चाहिए।।’,

श्लोक:’16.25′,

‘ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे दैवासुरसम्पद्विभागयोगो नाम षोडशोऽध्यायः ||१६||’,

‘Swami Tejomayananda did not comment on this sloka’,

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