भगवद् गीता में स्थितप्रज्ञ शब्द का प्रयोग एक ऐसे व्यक्ति के लिए किया जाता है जो समस्त परिस्थितियों में स्थिर बुद्धि वाला होता है। वह सुख-दुख, लाभ-हानि, जीत-हार आदि में विचलित नहीं होता और सदैव समभाव बनाए रखता है।
स्थितप्रज्ञ के कुछ प्रमुख लक्षण:
- समत्व भाव: स्थितप्रज्ञ व्यक्ति सभी प्राणियों में समान भाव रखता है। वह मित्र-शत्रु, मान-अपमान, सुख-दुख में भेदभाव नहीं करता।
- इंद्रिय-नियंत्रण: स्थितप्रज्ञ व्यक्ति अपनी इंद्रियों को वश में रखता है। वह लालच, क्रोध, मोह, ईर्ष्या आदि नकारात्मक भावनाओं से दूर रहता है।
- आत्म-ज्ञान: स्थितप्रज्ञ व्यक्ति को आत्मा और ईश्वर के स्वरूप का ज्ञान होता है। वह जानता है कि वह भौतिक शरीर से अलग है, और उसका सच्चा स्वरूप आत्मा है।
- कर्मयोग: स्थितप्रज्ञ व्यक्ति अपना कर्तव्य ईश्वर को समर्पित करते हुए निस्वार्थ भाव से करता है। वह कर्म के फल की आसक्ति नहीं रखता, बल्कि कर्म को ईश्वर की पूजा के रूप में स्वीकार करता है।
गीता में स्थितप्रज्ञ की विशेषताएं:
- अध्याय 2, श्लोक 56: “जो सुख-दुख में समान है, वह स्थितप्रज्ञ है।”
- अध्याय 6, श्लोक 28: “जो कर्मों में आसक्ति नहीं रखता, वह स्थितप्रज्ञ है।”
- अध्याय 12, श्लोक 13-14: “सभी प्राणियों में समान भाव रखो, मित्र-शत्रु, मान-अपमान, सुख-दुख में सम रहो।”
- अध्याय 14, श्लोक 23: “जो सभी द्वंद्वों से परे है, वह स्थितप्रज्ञ है।”
निष्कर्ष:
गीता में स्थितप्रज्ञ को जीवन का एक आदर्श बताया गया है। स्थितप्रज्ञ व्यक्ति जीवन में सच्चा सुख और शांति प्राप्त करता है।
यह भी ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि स्थितप्रज्ञ बनना एक आसान काम नहीं है। इसके लिए व्यक्ति को निरंतर अभ्यास और आत्म-साधना की आवश्यकता होती है।